जानलेवा बीमारी ने छीना विवेक अग्निहोत्री का बचपन: वामपंथ पर फिल्म बनाई तो लोगों ने कहा मोदी सपोर्टर, कंधा भी तोड़ा; ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर मिलीं धमकियां

जानलेवा बीमारी ने छीना विवेक अग्निहोत्री का बचपन:  वामपंथ पर फिल्म बनाई तो लोगों ने कहा मोदी सपोर्टर, कंधा भी तोड़ा; ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर मिलीं धमकियां


7 मिनट पहलेलेखक: आशीष तिवारी/भारती द्विवेदी

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अंग्रेजी में एक कहावत है कि यू कैन हेट मी, यू कैन लव मी…बट यू कांट इग्नोर मी। फिल्म डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री पर ये कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है।

लंबे समय तक एड फिल्म्स और फिर बॉलीवुड में मसाला फिल्म बनाने वाले विवेक ने जब अपनी ही कहानी फिल्म के जरिए दिखाई तो उन्हें एक तबके का भारी समर्थन और दूसरे तबके से जबरदस्त विरोध मिला। ऐसा कि फिल्म स्क्रीनिंग में उनका कंधा तक तोड़ दिया गया।

‘सिर पर कफन बांधकर निकला हूं’ कहने वाले इंडस्ट्री के सबसे विवादित डायरेक्टर विवेक पर प्रोपेगैंडा फिल्में बनाने और इस्लामोफोबिया का आरोप भी लगा। हालांकि उनका मानना है कि उनकी फिल्मों का मकसद उन मुद्दों पर बातचीत शुरू करना है, जिन्हें कोई कहना नहीं चाहता।

आज की सक्सेस स्टोरी में डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री बता रहे हैं अपनी जर्नी…

जानलेवा बीमारी ने मेरा बचपन छीना

बचपन सबका एक जैसा मासूम होता है, लेकिन मेरा बचपन थोड़ा अलग था। 5-6 साल का था, जब मुझे रूमैटिक फीवर हो गया। वो ऐसी बीमारी थी, जिसमें मेरी जान पर बन आई थी। किसी को नहीं पता था कि मैं बचूंगा भी या नहीं।

मेरा जन्म बहुत लेट हुआ था इसलिए मेरी मां मुझे लेकर बहुत प्रोटेक्टिव थीं। मेरा घर से बाहर निकलना ही मना था। खेलना-कूदना तो बहुत दूर की बात थी। कभी खेलने चला गया तो बॉडी के सभी जोड़ों में दर्द शुरू हो जाता था। वो दर्द ऐसा होता था कि जिसे झेला नहीं जा सकता था।

मुझे रूमैटिक फीवर के इलाज के लिए बहुत ज्यादा एंटीबायोटिक दी गई। उसका मेरे ऊपर अलग साइड इफेक्ट हो गया। बॉडी की कई इन्वेंटरी मसल्स डैमेज हो जाती हैं। मेरी आंखों की मसल्स डैमेज हो गई थी। भगवान का शुक्र है कि मैं अंधा नहीं हुआ।

इस चक्कर में ये हुआ कि मेरा बचपन बाकी बच्चों से अलग हो गया। मैं कूद-फांद नहीं पाया। हमेशा घर में बंद रहा। मैं हमेशा बीमार रहा। हालत इतनी खराब रहती थी कि मैं महीने के 10-15 दिन तो स्कूल भी नहीं जाता था। मुझे याद है कि मुझे जॉइंट पेन होने पर मेरी मां अपनी साड़ियां फाड़कर उनसे बर्फ की पट्टियां लगाती थीं।

बिस्तर पर पड़े-पड़े दुनिया की समझ बनी

नॉर्मल बचपन क्या होता है, मुझे नहीं पता था। बाहर निकलना होता नहीं था, ऐसे में घर पर ही खूब पढ़ाई करता। मेरे घर में मैगजीन, साहित्य से जुड़ी जितनी किताबें आती थीं, मैं उन्हें पढ़ता था।

घर पर रामधारी सिंह दिनकर, शिवमंगल सिंह सुमन, भवानी प्रसाद मिश्र, दुष्यंत कुमार जैसे साहित्यकारों का आना-जाना था। ये लोग जब घर आते थे, तब समाज, राजनीति इन सब पर चर्चा होती थी। उस जमाने में सीरियस बातें ज्यादा होती थीं। मुझे बेड पर लेटे-लेटे भी इन सारे मुद्दों पर खूब एक्सपोजर मिला।

मेरे हाथ-पैर बंधे थे, लेकिन कान तो खुले थे। तीसरी-चौथी क्लास तक तो मैंने भारत के महान साहित्यकार, भारत के महान पुरुष जैसी किताबें लिख दी थीं। मैंने इनकी दस-दस कॉपी बनाई थी, जिसे टाइप करके प्रिंट भी कराया गया था। इन सबकी वजह से बचपन से ही मेरा दुनिया देखने का नजरिया अलग रहा।

लेफ्ट छात्रों के साथ मिल पत्थर फेंके, बसें जलाईं

जब मैं कॉलेज में गया तो मुझे आजादी का एहसास हुआ। उस जमाने में भी दो तरह के स्टूडेंट्स होते थे। एक एक्टिविस्ट टाइप के जो गुंडागर्दी करते थे। जूनियर की रैगिंग, मारपीट, दंगा बाजी करते थे और फिर आपके लिए भी लड़ते थे। ये काम लेफ्ट वाले लोग ज्यादा करते थे।

दूसरा सरकार से जुड़ी पार्टियां होती थीं, वो आमतौर पर इस्टैब्लिशमेंट से जुड़े चमचे टाइप के लोग होते थे। उस जमाने में एनएसयूआई वाले इस्टैब्लिशमेंट पार्टी थे।

मेरे अंदर का जो विद्रोही था, उसकी वजह से मैंने एनएसयूआई को जॉइन कर लिया। फिर मुझे एहसास हुआ कि पॉलिटिकल पार्टी में फंसने से ज्यादा अच्छा है कि इंडिपेंडेंट रहो। मैं थिएटर, ड्रामा में ज्यादा इन्वॉल्व था।

बाद में मैं लेफ्टिस्ट लोगों के साथ जुड़ गया। जिनके साथ मैं जुड़ा वो एक्स्ट्रीम लेफ्टिस्ट थे। बसें जलाना, हड़ताल करना, विधानसभा पर पत्थर फेंकना, प्रोफेसर की बेइज्जती करना, ये सब मैंने उन लोगों के साथ मिलकर किया है।

आजादी मिली तब सारे गलत काम किए

मिनिमलिज्म आज फैशन है, लेकिन मेरे घर में हम ऐसे ही रहते थे। घर में जितनी चीजों की जरूरत रहती, उतनी ही होतीं। मैं सोशलिस्ट परिवेश से आया था। जहां सब बराबर हैं और सबके पास पैसा होना चाहिए, जैसी सीख मिली थी।

सर्दी में घर के बुने दो स्वेटर और गर्मी का मौसम हो तो दो सफेद पैंट और शर्ट रहतीं। मैं न्यूनतम चीजों में पला-बढ़ा था। ऐसे में जब कॉलेज में विद्रोही फेज चल रहा था, तब मैंने सब कुछ किया।

मैं एक सात्विक परिवार से आता हूं तो मैंने कॉलेज में मटन खाना, शराब पीना और भी वो सारे काम किए, जिसकी मनाही थी। मैंने इन सबको एक्स्ट्रीम लेवल पर जाकर किया।

बाजारवाद के बीच अपनी जड़ों से दूर हो गया

भोपाल में कॉलेज के बाद मैं आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आया, यहां आकर मेरा पाला कैपिटलिज्म से पड़ा। मेरे लिए एकदम ही अलग दुनिया थी। मैं इसके बीच में कहीं खो गया और अपनी जड़ों से दूर हो गया।

छोटे शहर के लोग बड़े शहर में आकर शुरुआत के 8-10 साल सिर्फ अंग्रेजी माइंडसेट से लड़ने में लगा देते हैं। मेरे साथ भी यही हुआ। उस वक्त एडवर्टाइजिंग में सिर्फ एलीट लोगों का दबदबा था। उस वक्त जो ट्रेनी होते थे, वो भी मर्सिडीज में आते थे। मेरे बॉस तो पाइप पीने वाले, थ्री पीस सूट पहनने वाले लोग थे।

जब मैं दिल्ली के नामी मास कम्युनिकेशन कॉलेज IIMC से हार्वर्ड गया, तब मेरी सोच पूरी तरह से बदल गई। वहां जाकर मैंने देखा कि अंग्रेजी कुछ नहीं है एक भाषा के अलावा। जो चीज मैटर करती है, वो आपका टैलेंट और आपकी नॉलेज। मैं जहां पढ़ता था, वहां तो सबसे ज्यादा अंग्रेजी बोली जाती थी, लेकिन वहां लोगों के लिए भाषा नहीं, नॉलेज मैटर करती थी।

फिल्में बनाने का कोई ख्याल तक नहीं था

अमेरिका में मेरे पास ग्रीन कार्ड था। मैं वहीं पर एडवर्टाइजिंग का काम कर रहा था। उस समय तारा सिंह नाम की एक महिला थीं, जो कोका कोला, नेस्ले, जिलेट जैसे बड़े-बड़े अकाउंट हैंडल करती थीं। वो पहली बार अमेरिकन ग्लोबल कंपनी मैकेन के साथ एक कोलैबाेरेशन​ लेकर इंडिया आ रही थीं, उन्होंने मुझे खुद के साथ काम करने का ऑफर दिया। इस तरह मैं भारत वापस आया। मेरा फिल्मों में आने का कोई सपना नहीं था।

भारत आकर मैं दिल्ली की एक एजेंसी के लिए काम कर रहा था। उस वक्त डायरेक्टर राकेश ओमप्रकाश मेहरा और उनका एक दोस्त मिलकर दिल्ली बेस्ड एक कंपनी चलाते थे। मेरी एजेंसी उनकी क्लाइंट थी। ये हमारे लिए दो एड फिल्म बनाने वाले थे।

किसी बात पर नाराज होकर राकेश के दोस्त ने फिल्म बीच में ही छोड़ दी। ऐसे में क्रू में काम करने वाले सारे लोगों ने मुझे कहना शुरू किया कि सर आपकी स्क्रिप्ट है तो आप ही क्यों नहीं ये फिल्म बनाते। मैंने उनसे कहा कि डायरेक्शन का मुझे कुछ आता नहीं है। फिर उन सबने कहा कि हम आपकी मदद करेंगे।

उसी समय वहां पर शेखर कपूर की फिल्म टाइम मशीन की शूटिंग चल रही थी, जिसे आमिर खान कर रहे थे। मैं चुपचाप उनके सेट पर चला गया ये देखने कि डायरेक्टर काम कैसे करते हैं।

वहां जब मैं गया तो देखा शेखर कुछ नहीं कर रहे हैं। बस टहल रहे हैं और धीरे से क्रू को कुछ कह रहे हैं। मुझे समझ आया कि आपको अपनी कहानी कैसे कहनी है ये पता होना चाहिए। बाकी आपकी मदद के लिए 50 लोग मौजूद होते हैं।

मैंने वो दोनों एड फिल्में टाइम से पहले शूट कर लीं। फिर बचे हुए टाइम में एड्स से जुड़ी एक पब्लिक सर्विस फिल्म बनाई। उस फिल्म को लोगों ने बहुत प्यार दिया। उसे देश-विदेश में कई अवॉर्ड भी मिले।

मेरे पास इतनी फिल्में थीं कि सोचने का टाइम नहीं था

इस तरह एड फिल्म बनाने का मेरा सिलसिला चालू हो गया। मैं दिल्ली-मुंबई ट्रैवल करने लगा। इसी दौरान सुभाष चंद्रा जी ने मुझे जी टीवी के लिए कुछ शो बनाने का ऑफर दिया। मैं उनके लिए वीकली शो बनाने लगा, जो कि लोगों को बहुत पसंद आए। जी में काम करने के दौरान ही मुझे एक शख्स मिले, जिन्होंने मुझे सलाह दी कि मुझे 1995 में आई अमेरिकन फिल्म ‘द यूजुअल सस्पेक्ट’ पर फिल्म बनानी चाहिए।

दरअसल, उस समय बॉलीवुड में ऐसी ही फिल्में बन रही थीं, जिसमें फेमस नॉवेल या फिल्म को हूबहू कॉपी किया जा रहा था। गाने पाकिस्तान से चुराए जा रहे थे। फिर मैंने ‘चॉकलेट’ नाम से टेली फिल्म बनाई। मेरी उस फिल्म को लंदन की एक प्रोड्यूसर ने देखा और उन्हें वो बहुत पसंद आई। वो उस टेलीफिल्म को लेकर फिल्म बनाना चाहती थीं।

मेरे सामने उन्होंने शर्त रखी कि अगर मैं सुनील शेट्टी, इरफान खान और अरशद वारसी को फिल्म में लेकर आऊं तो मेरी फिल्म में वे पैसे लगाएंगी। ऊपर वाला भी मेरे साथ था, मैं सबसे बात करके उन्हें फिल्म में ले आया। इस फिल्म में अपने आप में कई यूनीक चीजें रहीं।

फिल्म रिलीज के दो दिन बाद ही मुझे रॉनी स्क्रूवाला का कॉल आया कि मुझसे मिलो, कुछ कटिंग एज वाली फिल्म बनाते हैं। इस तरह स्पोर्ट्स पर मैंने जॉन अब्राहम, बिपाशा बसु को लेकर फिल्म ‘गोल’ बनाई। उसके बाद मुझे रिलायंस ने दो फिल्मों के लिए साइन कर लिया।

मुझे सोचने का मौका ही नहीं मिला। 2005 से 2014 तक मैंने ‘गोल’, ‘हेट स्टोरी’, ‘जिद’ जैसी कई फिल्में बनाईं। फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं ये नहीं बनाना चाहता था। इन फिल्मों को बनाते समय मुझे लगा कि मैं अपना समय बर्बाद कर रहा हूं।

डायरेक्टर होने के बाद भी स्टार पावर के सामने मेरी कोई औकात ही नहीं है।

‘बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम’ मेरे जीवन की कहानी है

मैं आईएसबी में ‘आई एम बुद्धा’ नाम से एक कोर्स चला रहा था। वहां से ‘बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम’ का आइडिया आया। दरअसल, वहां पर कुछ स्टूडेंट थे, जो नक्सल्स का महिमामंडन करते हुए उनके ऊपर फिल्म बनाने वाले थे।

मैंने उन्हें बताया कि इसका एक दूसरा पहलू भी है, जिसमें प्रोफेसर पढ़े-लिखे बच्चों का ब्रेन वॉश करके स्टेट के खिलाफ उन्हें खड़ा कर रहे हैं। हमने रिसर्च करके सारा डेटा निकाला। फिर लगा कि चलो इस पर फिल्म बनाते हैं।

ऐसे में साल 2010- 2011 में ‘बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम’ बनी। फिल्म बनी और अटक गई। शायद उस वक्त रिलीज हो जाती तो कोई इस फिल्म को पूछता नहीं।

साल 2016 में जब ये रिलीज हुई, तब देश में नरेंद्र मोदी जी की सरकार थी। उसी वक्त जेएनयू वाला ‘भारत तेरे टुकड़े…’ वाला मामला भी हो गया था। इंडस्ट्री और बाहर के कुछ लोगों ने मेरी फिल्म को प्रोपेगैंडा फिल्म बताना शुरू किया।

ये वही लोग हैं, जिन्होंने न तो मेरी फिल्म देखी है और न ही इसके ऊपर मैंने जो किताब लिखी, वो पढ़ी है। इस किताब से लाखों स्टूडेंट्स की लाइफ बदली है। जिन बच्चों ने ये किताब पढ़ी है, वो मेरे पांव छूते हैं।

मेरी इस 250 रुपए की किताब को अमेरिका में लोग 10 हजार में खरीदते हैं। वह किताब अद्वैत से इंस्पायर्ड है। किताब में छोटे शहर के मिडिल क्लास लड़के की व्यथा है। असल में ये मेरी ही कहानी है।

मेरी किताब का अर्बन नक्सल शब्द कुछ मीडिया वालों ने इस्तेमाल करना शुरू किया। फिर इस शब्द को बीजेपी के कुछ नेताओं ने इस्तेमाल किया। बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसका जिक्र किया।

बाद में जो सरकार विरोधी लोग थे, इन्होंने खुद को अर्बन नक्सल मानना शुरू कर दिया। मुझे पता भी नहीं है कि मेरा लिखा ये शब्द कैसे पॉपुलर हो गया। मुझे इनके विवाद का फायदा हुआ कि मेरी बुक ऑल टाइम बेस्टसेलर हो गई। मेरी फिल्म ढंग से रिलीज भी नहीं हुई थी, उसके बावजूद कल्ट बन गई। इस फिल्म ने मेरी लाइफ को बदल कर रख दिया।

यूनिवर्सिटी में फिल्म दिखाई तो छात्रों ने कंधा तोड़ा

इस फिल्म को बनाते समय मुझे अलग-अलग दिक्कतों का सामना करना पड़ा। पहले पैसों से जुड़ी प्रॉब्लम आई, फिर रिलीज के वक्त लास्ट मिनट में डिस्ट्रीब्यूटर और थिएटर चेन बैक आउट कर गए। ऐसे में मैंने थिएटर को यूनिवर्सिटी में दिखाने का फैसला किया।

इस फिल्म के लिए मैंने सबसे पहला लेटर जेएनयू को लिखा। उस वक्त मुझे नहीं पता था कि जेएनयू में सिनेमा डिपार्टमेंट की हेड स्वरा भास्कर की मां हैं। उन्होंने मना कर दिया।

दरअसल, इस फिल्म में मैंने पहले स्वरा भास्कर को कास्ट किया था, लेकिन उनकी एक्स्ट्रीम लेफ्टिस्ट सोच की वजह से मुझे उन्हें फिल्म से हटाना पड़ा। उनकी मां से मिले ना के बाद भी मैंने हार नहीं मानी।

मैं यूनिवर्सिटी के एडमिन ब्लॉक के पास गया, तंबू लगाया और फिल्म को दिखाया। मेरी फिल्म का वहां बहुत विरोध हुआ। काले झंडे दिखाए गए। इस फिल्म को लेकर दो-तीन यूनिवर्सिटी में मेरे ऊपर अटैक भी हुआ। जादवपुर यूनिवर्सिटी में मेरे पर फिजिकल अटैक हुआ। वहां के लेफ्टिस्ट छात्रों ने मेरा कंधा तोड़ दिया।

कश्मीरी हिंदुओं का पलायन दिखाया तो धमकी मिली

मैंने ‘द ताशकंद फाइल्स’, ‘द कश्मीर फाइल्स‘ बनाई, तभी मुझ पर प्रोपेगैंडा फिल्म बनाने का आरोप लगा। मैं किसी पार्टी के सपोर्ट या किसी धर्म के खिलाफ फिल्म नहीं बना रहा। ‘द कश्मीर फाइल्स‘ के लिए मुझे जान से मारने की धमकी मिली, जिसकी वजह से सरकार को मुझे वाई कैटेगरी की सुरक्षा देनी पड़ी।

एक तरफ लोग मुझे गालियां देते रहे, लेकिन दूसरी तरफ ऑडियंस ने मेरी फिल्म को खूब प्यार दिया। मेरी इन दोनों ही फिल्म के लिए मुझे नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है।

‘द बंगाल फाइल्स‘ के जरिए मैं डायरेक्ट एक्शन डे की कहानी लेकर आ रहा हूं। मेरा मकसद है कि मेरी फिल्मों के जरिए बातचीत हो। मुझे देश के युवाओं को विभाजन के पीछे का सच बताना है।

युवाओं को उन हीरो की कहानी बतानी है, जिनके कारण कलकत्ता और बंगाल का बाकी हिस्सा बचा। देश के युवाओं से जो छिपाया गया है, मैं उन्हें बताऊंगा। मैं सिर पर कफन बांधकर निकला हूं और रुकने वाला नहीं हूं।

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