हिंदी सिनेमा में गिनती के ऐसे कलाकार हैं जिनकी लेखनी और जिनका अभिनय दोनों कमाल के रहे हैं। मशहूर निर्देशक अनुभव सिन्हा खुद के लेखक बनने का क्रेडिट आज भी सौरभ शुक्ला को ही देते हैं। और, सौरभ शुक्ला कहते हैं कि उन्हें जिंदगी ने लेखक बनाया। सौरभ शुक्ल की पैदाइश गोरखपुर की है, पर पले बढ़े वह ताजमहल के शहर आगरा में। आगरा का पेठा, आगरा का ताजमहल और आगरा के सौरभ शुक्ला! मशहूरियत के इस मकाम तक पहुंचने में क्या क्या पड़ाव पार किए उन्होंने, बता रहे हैं इस एक्सक्लूसिव मुलाकात में ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल को।

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शत्रुघ्न शुक्ल
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
सिनेमा आपके जीवन में कब और कैसे आया?
सिनेमा का शौक हमें बचपन से ही लग गया। मेरा परिवार बड़ा विचित्र परिवार रहा है। पिता जी मेरे शत्रुघ्न शुक्ल आगरा घराने के मशहूर गायक और मां (जोगमाया शुक्ला) तो प्रथम तबला वादक थीं ही। दोनों को पिक्चर देखने का बड़ा शौक था। हम चार लोग, मैं, मेरा बड़ा भाई, मां और बाबा, हर संडे को सुबह मॉर्निंग शो में अंग्रेजी पिक्चर जरूर देखते थे। फिर घर आकर खाना वगैरह खाकर शाम को छह बजे एक हिंदी फिल्म का शो भी जरूर देखते थे। ये हमारा तय साप्ताहिक कार्यक्रम था, महीने में आठ फिल्में तो हम देखते ही देखते थे। मेरे कितने दोस्त थे जिन्होंने डेढ़-डेढ़ साल फिल्म नहीं देखी होती और जिनके पिताजी गर्व से कहते कि हमने 20 साल से पिक्चर नहीं देखी। हमारे घर में सिनेमा का माहौल शुरू से रहा।

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सौरभ शुक्ला
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
आपने इतना सिनेमा देखा, आप खुद भी लेखक, निर्देशक हैं, आपको जब कोई किरदार निभाने को मिलता है तो सिरा कहां से पकड़ते हैं?
मैं सबसे पहले पटकथा लेकर चलता हूं। अपने जीवन से या आसपास के लोगों में उसका संदर्भ ढूंढता हूं। फिर जरूरत पड़ती है तो उसके दायरे से भी निकलकर पढ़ता हूं। उसकी पृष्ठभूमि देखता हूं। एक पटकथा में वे सारे सूत्र होते हैं जिनके आधार पर कोई कलाकार अपने किरदार की कल्पना कर सकता है। वही गीता है, वही बाइबल है। अपने आसपास के या जान पहचान के लोगों से भी कभी मदद मिल जाती है, जिनके साथ कभी ऐसा कुछ हुआ हो। हां, लेखक या निर्देशक होने का ये तो अंतर रहता है कि वह बाकी कलाकारों से अलग होता है। हर अच्छे लेखक को अनुसंधान की आदत होती है। वह उसके पास एक अतिरिक्त गुण तो होता ही है।

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सौरभ शुक्ला
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
आप अपने निभाए किरदारों को यादगार बनाने के लिए अलग से क्या कुछ करते हैं?
इसको मैं अपनी खुशकिस्मती मानूंगा कि जिस तरह से मैंने चीजों को सोचा और जिस तरह से मैंने चीजों को निभाया, वह लोगों को पसंद आया। कहना चाहिए कि वह लोगों से जुड़ पाया। किसी भी किरदार को दर्शक जब पसंद करते हैं तो वह उस चरित्र में अपने जीवन की कुछ न कुछ छाप देखते हैं। अभिनय में सबसे पहले मैं अपने आप से जुड़ता हूं क्योंकि मै भी एक आम इंसान हूं। मैं खुद से सवाल करता हूं कि क्या जनता इस किरदार को अपना सकेगी?

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सौरभ शुक्ला
– फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
ऐसा ही एक और किरदार मुझे याद आता है, जस्टिस सुंदरलाल त्रिपाठी…
ये कमाल की बात है कि मैं आज तक कोर्ट नहीं गया हूं। इस किरदार को निभाने में भी इस फिल्म के निर्देशक सुभाष कपूर काफी मददगार साबित हुए थे। उन्होंने अदालतों के बहुत सारे किस्से मुझे बताए थे। ‘जॉली एलएलबी’ से पहले हिंदी फिल्मों के जज को एक कार्डबोर्ड कैरेक्टर के तौर पर देखा जाता था, एक इंसान के तौर पर नहीं। लेकिन आखिर वह भी इंसान है। तो उसमें इंसानियत के सूत्र तलाशे गए कि सुंदरलाल त्रिपाठी रहता कहां होगा, तनख्वाह कितनी होगी? अमेरिका का जज तो है नहीं कि एक बंगला होगा और वहां एक उसका लैब्राडॉर होगा और चार पांच नौकर चाकर होंगे। नहीं, ऐसा जज वह नहीं है। वह तो आम जिंदगी जीने वाला जज है।